Reservation Policy India: जाति-आधारित आरक्षण और इसका सामाजिक प्रभाव

Reservation Policy India: भारत में आरक्षण व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण साधन रही है। यह व्यवस्था विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और विधायिकाओं में सीटें आरक्षित करती है। इसका उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को मुख्यधारा में लाना और सदियों से चली आ रही सामाजिक असमानताओं को दूर करना है। आइए, इस व्यवस्था के इतिहास, संवैधानिक प्रावधानों, और इसके सामाजिक प्रभाव को विस्तार से समझते हैं।

आरक्षण का उद्देश्य

भारत में आरक्षण व्यवस्था (Reservation Policy India) का मुख्य लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों को समान अवसर प्रदान करना है। इसके पीछे निम्नलिखित कारण हैं:

  • सामाजिक समानता: यह व्यवस्था उन समुदायों को ऊपर उठाने का प्रयास करती है, जो जाति व्यवस्था के कारण ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे हैं।
  • आर्थिक असमानता को कम करना: सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षित सीटों के माध्यम से आर्थिक स्थिरता प्रदान करना।
  • ऐतिहासिक अन्याय का सुधार: अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ हुए सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव को संबोधित करना।
  • विविधता को बढ़ावा: सार्वजनिक क्षेत्रों में विविध प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।
  • राजनीतिक सशक्तिकरण: विधायिकाओं में आरक्षित सीटें वंचित समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी देती हैं।

जाति-आधारित आरक्षण का इतिहास

भारत में आरक्षण व्यवस्था (Reservation Policy India) की जड़ें औपनिवेशिक काल से जुड़ी हैं। 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए जाति-आधारित आरक्षण की अवधारणा प्रस्तुत की थी। इसके बाद, 1933 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड ने ‘कम्युनल अवार्ड’ की घोषणा की, जिसमें मुस्लिम, सिख, ईसाई, एंग्लो-इंडियन, यूरोपियन और दलितों के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र प्रस्तावित किए गए।

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हालांकि, महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के बीच 24 सितंबर 1932 को हुए पुणे समझौते (Poona Pact) ने इस व्यवस्था को संशोधित किया। इसके तहत एकल हिंदू निर्वाचन क्षेत्र में दलितों के लिए आरक्षित सीटें सुनिश्चित की गईं। स्वतंत्रता के बाद, डॉ. आंबेडकर और संविधान सभा ने संविधान में आरक्षण व्यवस्था को शामिल किया, जो शुरू में 10 वर्षों के लिए थी, लेकिन सामाजिक असमानताओं के कारण इसे बार-बार बढ़ाया गया। 104वें संवैधानिक संशोधन (2020) के तहत यह व्यवस्था 2030 तक बढ़ाई गई है।

1991 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27% आरक्षण प्रदान किया गया। मंडल आयोग, जिसका गठन 1978 में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में हुआ था, ने 3,743 OBC जातियों और 2,108 अति-पिछड़े समूहों की पहचान की थी, जो भारत की आबादी का लगभग 52% थे।

Reservation Policy India: संवैधानिक प्रावधान

भारत के संविधान में आरक्षण व्यवस्था को कई अनुच्छेदों के माध्यम से लाग personally लागू किया गया है:

  • अनुच्छेद 15(4) और 16(4): केंद्र और राज्य सरकारों को SC/ST के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण प्रदान करने का अधिकार।
  • 77वां संशोधन (1995): अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा गया, जिसने SC/ST को पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति दी। 85वें संशोधन (2001) ने इसमें संशोधन कर SC/ST को प्रोन्नति में वरिष्ठता का लाभ दिया।
  • 81वां संशोधन (2000): अनुच्छेद 16(4B) के तहत SC/ST की रिक्तियों को अगले वर्ष में ले जाने की अनुमति दी गई, बिना 50% आरक्षण सीमा को प्रभावित किए।
  • अनुच्छेद 330 और 332: संसद और राज्य विधानसभाओं में SC/ST के लिए Garfield लिए आरक्षित सीटें।
  • अनुच्छेद 243D और 233T: पंचायतों और नगरपालिकाओं में SC/ST के लिए आरक्षण।
  • अनुच्छेद 335: प्रशासनिक दक्षता को प्रभावित किए बिना SC/ST के दावों पर विचार।
  • 103वां संशोधन (2019): सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण।

वर्तमान आरक्षण प्रतिशत

भारत में विभिन्न श्रेणियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत इस प्रकार है:

  • अनुसूचित जाति (SC): 15%
  • अनुसूचित जनजाति (ST): 7.5%
  • अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): 27%
  • आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): 10%
  • दिव्यांगजन: 4%

शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण

शैक्षणिक संस्थानों, विशेष रूप से सरकारी और सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित कॉलेजों में SC, ST, OBC और EWS के लिए सीटें आरक्षित हैं। IIT, NIT और मेडिकल कॉलेजों जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी आरक्षण नीति का पालन किया जाता है। कुछ राज्यों में निजी संस्थानों में भी SC/ST/OBC के लिए आरक्षण अनिवार्य है।

महत्वपूर्ण न्यायालयी निर्णय

कई ऐतिहासिक फैसलों ने आरक्षण व्यवस्था को आकार दिया है:

  • इंद्रा साहनी मामला (1992): मंडल आयोग की सिफारिशों को बरकरार रखते हुए OBC के लिए 27% आरक्षण को मंजूरी दी गई और कुल आरक्षण की सीमा 50% तय की गई। OBC के लिए ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा भी शुरू की गई।
  • एम. नागराज मामला (2006): SC/ST के लिए पदोन्नति में आरक्षण को कुछ शर्तों के साथ मंजूरी।
  • जनहित अभियान मामला (2022): EWS के लिए 10% आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।

सामाजिक प्रभाव

आरक्षण व्यवस्था (Reservation Policy India) ने वंचित समुदायों को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बेहतर अवसर प्रदान किए हैं। हालांकि, इसकी आलोचना भी होती रही है। कुछ लोग इसे प्रशासनिक दक्षता के लिए हानिकारक मानते हैं, जबकि कुछ इसे सामाजिक तनाव का कारण बताते हैं। सुधार की मांग बढ़ रही है, विशेष रूप से आर्थिक आधार पर आरक्षण पर जोर देने की।

EWS आरक्षण की शुरुआत आर्थिक आधार पर नीतियों की ओर एक कदम है। भविष्य में आरक्षण व्यवस्था में और बदलाव हो सकते हैं, जैसे नए समुदायों को शामिल करना और शिक्षा व कौशल विकास पर अधिक ध्यान देना।

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