Caste Census in India: भारत में जाति जनगणना की आवश्यकता और चुनौतियाँ

Caste Census in India: हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी किए गए जाति सर्वेक्षण के आंकड़ों ने एक बार फिर जाति जनगणना के मुद्दे को सुर्खियों में ला दिया है। भारत की जनगणना में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आंकड़े तो प्रकाशित किए जाते हैं, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अन्य समूहों की जनसंख्या का कोई आधिकारिक अनुमान उपलब्ध नहीं है। यह लेख भारत में जाति जनगणना की आवश्यकता और इससे जुड़ी चुनौतियों पर प्रकाश डालता है।

जनगणना और सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना (एसईसीसी) क्या है?

भारत में जनगणना: भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में औपनिवेशिक काल से हुई थी। यह सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य हितधारकों के लिए जनसंख्या, संसाधनों का आकलन, सामाजिक परिवर्तनों का अध्ययन और निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन जैसे कार्यों के लिए महत्वपूर्ण है। हालांकि, इसे विशेष अध्ययनों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता।

एसईसीसी: सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना की शुरुआत 1931 में हुई थी। इसका उद्देश्य ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भारतीय परिवारों की आर्थिक स्थिति का आकलन करना और वंचित समूहों की पहचान करना है। यह जातियों के आर्थिक हालात को समझने के लिए भी डेटा एकत्र करता है।

जनगणना और एसईसीसी में अंतर: जनगणना देश की जनसंख्या का सामान्य चित्र प्रस्तुत करती है, जबकि एसईसीसी का उपयोग सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान के लिए होता है। जनगणना अधिनियम 1948 के तहत जनगणना डेटा गोपनीय होता है, लेकिन एसईसीसी का व्यक्तिगत डेटा सरकारी विभागों द्वारा लाभ वितरण या प्रतिबंध के लिए उपयोग किया जा सकता है।

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भारत में जाति आधारित डेटा संग्रह का इतिहास

भारत में जाति आधारित डेटा संग्रह का इतिहास लंबा है। 1931 तक जनगणना में जाति से संबंधित जानकारी शामिल की जाती थी। 1951 के बाद, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए इसे बंद कर दिया गया। लेकिन बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य और सटीक जानकारी की आवश्यकता के कारण अब जाति जनगणना की मांग फिर से उठ रही है।

जाति जनगणना की आवश्यकता (Caste Census in India)

  • सामाजिक असमानता को दूर करना: भारत के कई हिस्सों में जाति आधारित भेदभाव अभी भी मौजूद है। जाति जनगणना वंचित समूहों की पहचान कर उन्हें नीति निर्माण में प्राथमिकता देने में मदद कर सकती है। विभिन्न जाति समूहों के वितरण को समझकर सामाजिक असमानता को कम करने के लिए लक्षित नीतियाँ लागू की जा सकती हैं।
  • संसाधनों का समान वितरण: ओबीसी और अन्य समूहों की जनसंख्या के सटीक आंकड़ों के बिना संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना मुश्किल है। जाति जनगणना विभिन्न समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और जरूरतों को समझने में मदद कर सकती है, जिससे समावेशी विकास को बढ़ावा मिलेगा।
  • सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन: ओबीसी और अन्य समूहों के लिए आरक्षण जैसी नीतियाँ सामाजिक न्याय को बढ़ावा देती हैं। लेकिन जनसंख्या डेटा के अभाव में इन नीतियों का प्रभाव और परिणाम मूल्यांकन करना चुनौतीपूर्ण है। जाति जनगणना इन नीतियों की निगरानी और संशोधन में मदद कर सकती है।
  • भारतीय समाज का व्यापक चित्र: जाति भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा है, जो सामाजिक संबंधों, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक गतिशीलता को प्रभावित करती है। जाति जनगणना सामाजिक विविधता और विभिन्न जाति समूहों के बीच अंतर्क्रिया को समझने में योगदान दे सकती है।
  • संवैधानिक आदेश: संविधान का अनुच्छेद 340 सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जाँच और उनके लिए कदम उठाने के लिए एक आयोग के गठन का प्रावधान करता है।

जाति जनगणना के खिलाफ तर्क

  • जाति व्यवस्था को मजबूत करना: विरोधी मानते हैं कि जाति आधारित भेदभाव गैरकानूनी है और जाति जनगणना इसे और मजबूत कर सकती है। उनका कहना है कि व्यक्तिगत अधिकारों और समान अवसरों पर ध्यान देना चाहिए।
  • जातियों को परिभाषित करने की जटिलता: भारत में हजारों जातियाँ और उपजातियाँ हैं। जातियों की स्पष्ट परिभाषा करना आसान नहीं है, जिससे भ्रम और विवाद हो सकते हैं।
  • सामाजिक विभाजन को बढ़ावा: कुछ लोग मानते हैं कि जाति जनगणना सामाजिक विभाजन को और बढ़ाएगी। राष्ट्रीय एकता के लिए समानताओं पर जोर देना बेहतर होगा।

सरकार का रुख

2021 में केंद्र सरकार ने लोकसभा में कहा था कि नीतिगत रूप से अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर अन्य जातियों की जनगणना नहीं की जाएगी।

एसईसीसी की भूमिका

2011 में आयोजित एसईसीसी ने सामाजिक-आर्थिक संकेतकों और जाति जानकारी को एकत्र करने का प्रयास किया था। लेकिन डेटा की गुणवत्ता और वर्गीकरण की चुनौतियों के कारण इसका कच्चा डेटा अभी तक उपयोग या प्रकाशित नहीं हुआ है। एक विशेषज्ञ समूह ने डेटा को वर्गीकृत करने के लिए सुझाव दिए थे, लेकिन उनके सुझाव अभी तक लागू नहीं हुए हैं।

  • जिला और राज्य स्तर पर स्वतंत्र अध्ययन किए जा सकते हैं ताकि स्थानीय स्तर पर जातियों और उपजातियों का डेटा प्राप्त हो।
  • डेटा का उपयोग सामाजिक ध्रुवीकरण या चुनावी लाभ के लिए नहीं होना चाहिए। यह लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की अवधारणा को कमजोर कर सकता है।
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता और मशीन लर्निंग जैसी तकनीकों का उपयोग डेटा विश्लेषण में मदद कर सकता है।
  • जस्टिस रोहिणी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी की उप-श्रेणीकरण किया जा सकता है ताकि कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों को लाभ मिले।

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निष्कर्ष

जाति जनगणना के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क हैं, लेकिन ओबीसी और अन्य समूहों की जनसंख्या का सटीक डेटा सामाजिक न्याय और संसाधनों के समान वितरण के लिए आवश्यक है। यह सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की प्रभावशीलता की निगरानी और भारतीय समाज की व्यापक समझ में भी मदद कर सकता है। नीति निर्माताओं को दोनों पक्षों के तर्कों पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए ताकि एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में कदम उठाए जा सकें।

स्रोत: इस लेख में दी गई जानकारी विभिन्न विश्वसनीय स्रोतों, जैसे भारतीय जनगणना के आधिकारिक दस्तावेज, बिहार सरकार के सर्वेक्षण और संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित है।

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